बिहार सरकार ने जाति आधारित गणना के आंकड़े सार्वजनिक कर दिए हैं। इस मुद्दे पर देश में अब एक नई बहस छिड़ गई है। कांग्रेस पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी कह रहे हैं कि जिसकी जितनी आबादी हो, उसको उतना हक मिलना चाहिए। इंडिया गठबंधन के दूसरे नेता भी इस मुद्दे को अपनी सियासी बढ़त के तौर पर देख रहे हैं। जातिगत जनगणना के कई दूसरे आयाम भी हैं। इसे केवल सियासी फायदे के तौर पर देख रहे हैं तो उसका नुकसान भी झेलना पड़ सकता है।
जेएनयू के पूर्व प्रोफेसर एवं विख्यात समाजशास्त्री डॉ. आनंद कुमार के मुताबिक, जातिगत जनगणना ठीक है, लेकिन इसके विभिन्न आयाम हैं। ये ध्यान रखना होगा कि जातिगत जनगणना, जाति व्यवस्था को नया खाद-पानी देने की तैयारी तो नहीं है। अगर ये 10-15 साल के वोट बैंक का षडयंत्र है, तो यह ‘बालू का किला’, की तर्ज पर ढह जाएगा। इसे सियासी फायदा समझ रहे हैं तो राष्ट्रीयता के साथ जातिगणना टकराएगी। देश के पहले गृह मंत्री सरदार पटेल ने जातिगत जनगणना की फाइल वापस लौटा दी थी।
कांग्रेस पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी और दूसरे विपक्षी दलों के नेता बिहार की जातिगत जनगणना की रिपोर्ट आने के बाद पूरे देश में जातिगत जनगणना कराने की बात कह रहे हैं। राहुल गांधी ने अपने ट्वीट में लिखा, बिहार में ओबीसी, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति, इनकी संख्या 84 प्रतिशत है। केंद्र सरकार के 90 सचिवों में से सिर्फ तीन ओबीसी हैं, जो भारत का मात्र 5 फीसदी बजट संभालते हैं। ऐसे में भारत के जातिगत आंकड़े जानना जरूरी है। जितनी आबादी, उतना हक, ये हमारा प्रण है। कई राजनीतिक दल अब देश में जातिगत जनगणना कराने की मांग कर रहे हैं। सभी के अपने-अपने तर्क हैं। वे चाहते हैं कि अभी बहुत से लोगों की विकास में हिस्सेदारी नहीं है। उन तक सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं पहुंच रहा है।
राष्ट्रनिर्माण और जातिगत व्यवस्था’ की टकराहट
बिहार में जब पहली बार जातिगत जनगणना की बात हुई तो जेएनयू के पूर्व प्रोफेसर एवं समाजशास्त्री डॉ. आनंद कुमार ने कहा था, जातिगत जनगणना ठीक है, लेकिन इसके विभिन्न आयाम हैं। ये ध्यान रखना होगा कि जातिगत जनगणना, जाति व्यवस्था को नया खाद-पानी देने की तैयारी तो नहीं है। ‘श्रीराम और शबरी’ आपको याद हैं, ‘हिडिम्बा व भीम’ को भूले नहीं हैं। अब श्रीराम का नारा सब जगह नहीं है, भीम से ‘जय भीम’ कैसे हो गया। ऐसा ही कुछ भ्रम अगर जातिगत जनगणना में हैं तो ‘राष्ट्रनिर्माण और जातिगत व्यवस्था’ की आपस में टकराहट भी तय है। बेहतर होगा कि जातिगत जनगणना का आधार सभी के लिए ‘शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार आवास एवं अस्मिता’ तक सीमित रहे।
राष्ट्र निर्माण के साथ धोखा न हो जाए
प्रो. आनंद कुमार के अनुसार, समाज में बहुत से बदलाव आ रहे हैं। कई मान्यताएं भी टूटी हैं। आधुनिकता के परिवेश में जाति के आधार पर सामाजिक निकटता का आधार निरर्थक हो चला है। जाति की पारंपरिक निरर्थकता खत्म हो गई। निजी जीवन में सच छिपाया जाता है कि उसे राजसत्ता में हिस्सा मिल जाए। अंग्रेजी शासनकाल में जाति और धर्म का मकसद कुछ और था। इसे राजपाट को सुरक्षित रखने का एक जरिया बना दिया गया था। अंग्रेजी शासन ने इसे हवा दी। राष्ट्रीय आंदोलन में जाति व्यवस्था कुछ कमजोर पड़ी थी। राष्ट्रीयता और जाति व्यवस्था का आग व पानी का रिश्ता है। आज जो नेता जातिगत जनगणना की रट लगा रहे हैं, वे ध्यान रखें कि इससे राष्ट्र निर्माण के साथ धोखा न हो जाए। ब्रिटिश काल में अल्पसंख्यक बनने की होड़ लग गई थी, वैसा कुछ अब न हो। जो जरुरतमंद है, उसे ही लाभ मिले।
रोटी-बेटी के रिश्ते में वह प्रथा आज भी जिंदा
आजादी से बीस साल पहले पूना पैक्ट के जरिए अस्पृश्यता को खत्म करने का प्रयास हुआ। यह अलग बात है कि छूआछात जनगणना के बाद भी 90 साल तक चल रही है। आज देश में 15 से 16 फीसदी भारतवंशी ऐसे हैं, जो हिंदू, मुस्लिम, सिख व इसाई में ‘अछूत’ हैं, लेकिन उनकी पहचान नहीं है। आदिवासी भी 8 फीसदी हैं। 76 फीसदी जातिगत पहचान मंडल आयोग से हुई। इसके बाद अन्य पिछड़ी जातियों को आरक्षण दे दिया गया। अंग्रेजों के समय में अल्पसंख्यक आरक्षण का आधार धर्म रहा। लोगों में खुद को अल्पसंख्यक दिखाने की होड़ लग गई। संख्या आधार पर गैर हिंदुओं की पहचान मिट गई। अंग्रेजी राज में जनगणना केवल हिंदुओं की हुई थी। मुसलमान और सिखों में भी जातियां होती हैं, लेकिन इसे नजरअंदाज कर दिया गया। सरकार इसे नहीं मानती, लेकिन रोटी-बेटी के रिश्ते में वह प्रथा आज भी जिंदा है। सामाजिक जीवन में तो जन्म से ही जाति की पहचान हो जाती है, राजनीतिक भूमिका मिल जाती है।
पांच हजार जातियां छूआछात का शिकार रहीं
जाति की पहचान सरकारी कर्मी की मदद से सही होगी, इसमें संशय है। अंग्रेजी शासन में भी यह संभव नहीं हो पाया था। 90 साल में एससी-एसटी की जनगणना नहीं हो सकी। हर जाति को अपनी राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक बेहतरी करने का अधिकार है। जब तक आरक्षण है तो जाति की जरुरत को अनदेखा नहीं कर सकते। प्रो. आनंद कुमार ने कहा, इतिहास के पन्ने पलटेंगे तो मालूम होगा कि जातिगत संरक्षण का एक कानूनी आधार रहा है। दबंगई और पुलिस कार्रवाई, ऐसे बहुत से उदाहरण मिल जाएंगे। देश में पांच हजार से अधिक जातियां छूआछात का शिकार रही हैं। इसे परंपरागत छूआछात कहना ठीक रहेगा। आधुनिक समय में जब संविधान ने निर्देश दिया तो उनके साथ दूसरी जातियों में सरकारी मदद की लेने की होड़ मच गई। यही जाति का सच रहा है। इसे राजनीति का मायाजाल कह सकते हैं। जब तक आरक्षण रहेगा तो जाति की जरूरत को अनदेखा नहीं किया जाता सकता। अंग्रेजों ने जातिगत गणना को अपने फायदे के लिए इस्तेमाल किया। राजनीतिक समानता का सच, आर्थिक व धार्मिक समानता से टकराता है। जब किसी जनतंत्र में सामाजिक असमानता को दूर करने की इच्छा होती है तो उसे आरक्षण के तहत लाया जाता है।
देश का सामाजिक ताना-बाना बिगड़ सकता है
1871 से 1920 तक सरकारी बाबूओं ने जाति की परिभाषा में संशोधन कर दिए। जाति प्रमाण पत्र के चक्कर में अवसरवादिता हावी हो गई। जातिप्रथा से पीड़ित लोगों की अनुसूचित जाति में शामिल होने की होड़ लगी। अछूतों के साथ यह हुआ कि वे एक प्रदेश में किसी जाति में तो दूसरे राज्य में अन्य जाति में शामिल हुए। दस करोड़ भारतीय ऐसे थे जो न तो स्वर्ण, न पिछड़े, न दलित और न आदिवासी की श्रेणी में आए। यह मनमाना विभाजन का नतीजा था। बाद में ऐसे लोगों को घुमंतू जाति का नाम दे दिया गया। राजनीतिक दलों को यह सोचना होगा कि जिस ‘जाति, धर्म, भाषा’ का विभाजन का दंश आज तक झेल रहे हैं, वह आगे न होने पाए। जाति, सरकारी मदद पाने का एक आधार न बने। अगर ऐसा होता है कि राष्ट्रीयता के साथ जातिगणना की टकराहट होती रहेगी। आजादी के बाद जब तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री सरदार पटेल के पास जातीय जनगणना का प्रस्ताव आया तो उन्होंने वह फाइल वापस लौटा दी थी। उनका कहना था कि जातीय जनगणना कराए जाने से देश का सामाजिक ताना-बाना बिगड़ सकता है।