[ad_1]
विधानसभा चुनाव की सरगर्मी तेज है। मध्य प्रदेश में भाजपा अब तक 79 उम्मीदवार तय कर चुकी है। बड़े-बडे नेताओं, केंद्रीय नेताओं को मैदान में उतार दिया गया है। छत्तीसगढ़ को लेकर रणनीति बन रही है और राजस्थान पर भी सभी की नजरें हैं। इस बीच, सबसे ज्यादा चर्चा मध्य प्रदेश में भाजपा की ओर से उतारे गए बड़े चेहरों की हो रही है। इसी पर चर्चा के लिए इस बार ‘खबरों के खिलाड़ी’ में हमारे साथ रामकृपाल सिंह, विनोद अग्निहोत्री, प्रेम कुमार, अवधेश कुमार, राखी बख्शी और समीर चौगांवकर मौजूद थे। आइए जानते हैं इन विश्लेषकों का विश्लेषण…
विनोद अग्निहोत्री
मध्य प्रदेश जनसंघ के जमाने से भाजपा का गढ़ रहा है। 2018 में भाजपा चूक गई थी। इस बार वह कोई मौका नहीं छोड़ना चाहती। इसलिए एक-एक सीट उसके लिए महत्वपूर्ण है। दूसरी सूची में सात सांसद हैं। तीन मंत्री हैं। ये वो सीटें हैं, जिन्हें भाजपा हारती रही है। नरेंद्र सिंह तोमर जहां से चुनाव लड़ेंगे, उस सीट पर भाजपा बड़े अंतर से हारी थी। इसी तरह इंदौर में कैलाश विजयवर्गीय को भी मुश्किल सीट पर उतारा गया है। भाजपा इस बार गड्ढों को भरने की तैयारी कर रही है। मध्य प्रदेश में शिवराज पिछले करीब 18 साल से मुख्यमंत्री हैं। भाजपा शायद इस बार नेतृत्व बदल सकती है। इसी वजह से बड़े नेताओं को मैदान में उतार दिया गया है।
भाजपा यह संदेश दे रही है कि शिवराज अभी नेता हैं, लेकिन चुनाव के बाद नेता बदल भी सकता है, लेकिन इसका जोखिम भी है कि भाजपा ने पैनिक बटन दबा दिया है। 2019 में ओडिशा में विधानसभा और लोकसभा चुनाव एक साथ हुए। उसके बाद के नतीजे देख लीजिए। विधानसभा चुनाव में नवीन पटनायक भारी बहुमत से जीतते हैं। वहीं, लोकसभा चुनाव में भाजपा जीत जाती है। इससे पता चलता है कि वोटर को पता है कि उसे कहां किसे वोट देना है।
आज की तारीख में मध्य प्रदेश में भाजपा के पास शिवराज सिंह चौहान से बड़ा कोई जन नेता नहीं है। आप उन्हें पसंद करें या नहीं करें, आपको यह तथ्य मानना पड़ेगा। कैलाश विजयवर्गीय हों, नरेंद्र तोमर हों या प्रह्लाद पटेल हों, तीनों का अपना अलग जनाधार है। ऐसे में अगर ये नेता अपने क्षेत्र में सीटें जीतते हैं तो उसका फायदा भाजपा मिलेगा।
समीर चौगांवकर
यशोधरा राजे सिंधिया ने कहा था कि पांच लोग हैं, जो मुझे चुनाव हरवाना चाहते हैं। अब वे कह रही हैं कि वे चुनाव नहीं लड़ना चाहतीं। स्वास्थ्य ठीक नहीं है। ऐसे में सवाल तो उठेंगे ही। 2014 में वे ग्वालियर से लोकसभा चुनाव लड़ना चाहती थीं, लेकिन उन्हें विधानसभा भेज दिया है। अब ज्योतिरादित्य सिंधिया गए हैं। ऐसे में पार्टी शायद उन्हें शिवपुरी से चुनाव लड़वाए। हालांकि, वे खुद ग्वालियर में काम करते रहे हैं। ऐसे में वे ग्वालियर से लड़ना चाहेंगे।
कैलाश विजयवर्गीय केंद्र की राजनीति कर रहे थे। वे केंद्रीय नेतृत्व से कह रहे थे कि बेटे आकाश को इंदौर-एक नंबर से टिकट दे दीजिए। मैं सीट जितवा दूंगा। इसके बाद भी केंद्रीय नेतृत्व ने कहा कि नहीं, चुनाव आपको लड़ना है। ऐसे में लगता है कि शायद पार्टी आकाश विजयवर्गीय को टिकट नहीं देना चाहती थी। इसी तरह दिमनी में नरेंद्र सिंह तोमर के लिए भी चुनौतियां हैं। मध्य प्रदेश को लेकर जिस तरह से अमित शाह और नरेंद्र मोदी फैसले ले रहे हैं, उसके बाद राज्य में सिर्फ एक भाजपा रह गई है- मोदी और शाह की भाजपा। अब वहां न शिवराज भाजपा हैं, न महाराज भाजपा हैं और न ही नाराज भाजपा रह गई है। इस वक्त भाजपा एक ही एजेंडे पर टिकट दे रही है। जो जीतने वाला उम्मीदवार होगा, उसे ही टिकट दिया जाएगा। इस बार न उम्र का कोई नियम है, न दूसरी पार्टी से आए नेता का है। बस जिताऊ उम्मीदवार होना चाहिए।
प्रेम कुमार
भाजपा ने जो रणनीति तय की है, उसने स्थानीय राजनीति की भूमिका पूरी तरह से खत्म कर दी है। हालात क्या हैं? पहले ऐसा होता था कि नेता उम्मीदवारों की लिस्ट में अपना नाम देखने के लिए व्याकुल रहते थे। टिकट मिलने पर नेता मिठाई तक बांटते थे, लेकिन इस बार क्या कैलाश विजयवर्गीय या नरेंद्र सिंह तोमर को टिकट मिलने पर मिठाई बांटी गई?
प्रह्लाद पटेल को जब टिकट मिलता है तो उनके भाई कहते हैं कि वे चुनाव नहीं लड़ेंगे और अपने भाई के लिए काम करेंगे। यशोधरा राजे कहती हैं कि उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं है तो चुनाव नहीं लड़ेंगी। ये दोनों ही घोषणाएं अपने मन से नहीं की गई हैं। यशोधरा के इस एलान के बाद तय हो गया है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया को टिकट मिलने जा रहा है।
शिवराज सिंह नाम का ब्रांड किसी सीईओ ने नहीं बनाया है, जिसे कोई खारिज कर दे। जहां तक कांग्रेस की बात है, वहां कमलनाथ के रूप में स्थानीय नेतृत्व मजबूत है। दिग्विजय सिंह के समर्थन से और मजबूती मिली है। कमलनाथ ने जिस रणनीति से काम किया, उससे उन्होंने कांग्रेस के लिए राज्य में एक अनुकूल वातावरण बनाया है। जहां तक अखिलेश या मायावती के जाने की बात है तो यह कोई नया नहीं है।
रामकृपाल सिंह
जो नंबर एक होता है, उसके सामने सबसे ज्यादा चुनौती होती है क्योंकि उसे अपनी जगह बनाए रखनी होती है। इसलिए वह लगातार प्रयोग करता है। सफलता तभी मिलती है जब आपका हर कदम लोगों को चौंकाने वाला लगे। वही, भाजपा कर रही है। भाजपा के सामने खोने का डर भी है और पाने की भी चिंता है। बाकी पार्टियों को खोने का डर नहीं है। भाजपा को 18 साल की सत्ता विरोधी लहर से निपटना है। क्या होगा, यह कहना मुश्किल है। नया प्रयोग करना भाजपा की मजबूरी है। आप कितने भी अच्छे हों, कितने भी काम किए हों, उसके बाद भी इतने साल में लोग ऊब जाते हैं। हम जिसे जिस रूप में देखते हैं, उसके अलावा उसके योगदान की कल्पना नहीं करत पाते। यह नहीं होना चाहिए। हो सकता है कि 2024 में शिवराज सिंह चौहान केंद्रीय वित्त मंत्री बन जाएं तो क्या उनका योगदान कम हो जाएगा?
राखी बख्शी
अगर आप नेतृत्व की बात करें तो हर वक्त महिलाओं को साथ लेकर चलने की बात हो रही है। लेकिन, महिलाओं को टिकट में देने में यह परिलक्षित भी होना चाहिए। अमित शाह कहते हैं कि संगठन में काम करना जरूरी होता है। ऐसे में बड़े-बड़े चेहरों को टिकट देना दिखाता है कि सभी को संगठन में खुद को साबित करना होगा।
अवधेश कुमार
भाजपा ने अब तक सात सांसदों को उतारा है। कैलाश विजयवर्गीय तो सांसद भी नहीं हैं। भाजपा ने 2003 में केंद्रीय मंत्री को ही मुख्यमंत्री का उम्मीदवार बनाया था। ऐसे में यह कोई अजूबा नहीं हुआ है। चुनाव एक अहिंसक युद्ध है। ऐसे में इसे जीतने के लिए आपके पास जितने संसाधन हों, उन सभी को लगाना चाहिए। कोई भी पार्टी एक नेता पर निर्भर होकर लंबे समय तक नहीं रह सकती है। नरेंद्र मोदी अगर एक संपदा हैं तो पूरी पार्टी उन पर निर्भर भी होती जा रही है। हिमाचल और कर्नाटक में उन्होंने देखा है कि किस तरह स्थानीय चुनाव में नतीजे आए। अगर ये प्रयोग सफल नहीं होता है तो यह मान लिया जाएगा कि भाजपा के ज्यादातर नेताओं की चुनाव जिताने की हैसियत नहीं है।
शिवराज सिंह के मामले में यह स्वीकार करना होगा कि पार्टी में अगर किसी के खिलाफ सबसे ज्यादा नाराजगी है वो शिवराज सिंह के ही खिलाफ है। कुल मिलाकर भाजपा दो चुनाव हारने के बाद तीसरा चुनाव नहीं हारना चाहती है।
[ad_2]
Source link