बिहार में हुई जातिगत जनगणना के आंकड़े से समूचे देश की राजनीति में सियासी उबाल आ गया है। लेकिन इसी जातिगत जनगणना के आंकड़ों के बीच में एक ऐसी जानकारी भी सामने आई है, जो अपने लिहाज से न सिर्फ अनोखी हैं, बल्कि यह उंगली पर गिनी जाने वाली जनसंख्या का कितना पुराना इतिहास है, यह भी बताती है। हालांकि बिहार की इन 209 जातियों में ऐसी अनोखी और अजीबोगरीब नाम वाली जातियों में अब तो गिने चुने लोग ही बचे हैं। देश के अलग-अलग इलाकों में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों पर काम करने वाले शिक्षकों और समाजशास्त्रियों का मानना है कि जातिगत आंकड़ों के आधार पर ही सही इन जातियों का उल्लेख समूचे देश में हुआ है।
बिहार सरकार की ओर से जारी किए गए 209 जातियों में 182 जातियां ऐसी हैं, जिनका प्रतिशत न सिर्फ एक फ़ीसदी से कम है, बल्कि कुछ का तो महज प्रतिशत ही नहीं उंगली पर गिनने भर का आंकड़ा बचता है। ‘सेंटर फॉर सोशल साइंस, स्टडीज एंड ह्यूमन लाइफ बिहेवियर’ के पूर्व निदेशक अरिंदम बनर्जी कहते हैं कि 209 जातियों की जो लिस्ट बिहार सरकार ने जारी की है, उनमें कई जातियां ऐसी हैं, जिनका सैकड़ों साल पुराना इतिहास है और उनके बड़े अजीबोगरीब नाम भी हैं। वह कहते हैं कि बिहार में एक छीपी जनजाति का जिक्र हुआ है। बिहार सरकार के आंकड़ों के मुताबिक मध्यप्रदेश में इस जनजाति के महज 873 लोगों की आबादी है। वह कहते हैं कि यह जनजाति मूलतः गुजरात, राजस्थान और पाकिस्तान के इलाकों समेत अफगानिस्तान और आसपास के क्षेत्र में पाई जाती थी। कपड़ों की रंगाई और उनकी देखरेख का काम करने वाली यह जनजाति भारत पर राज करने वाले अलग-अलग शासकों के साथ मिलकर उनके लिए उनकी पोशाकों की छपाई और रंगाई का काम करने लगे। आजादी के बाद में इस जनजाति के लोग देश के गुजरात, राजस्थान, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड और उड़ीसा जैसे आदिवासी प्रभावित इलाकों में रहने लगे।
भागलपुर में तिलका मांझी विश्वविद्यालय के प्रवक्ता रहे डीबी झा कहते हैं कि ऐसे ही एक गड़ेहड़ी जाति का जिक्र बिहार में जाति जनगणना के आंकड़ों में आया है। वह कहते हैं कि तकरीबन दस हजार की आबादी वाली इस जाति में ज्यादातर लोग ऐसे हैं जो ईंट- भट्टों पर काम करते थे। बाद में अपने जानवरों से वह ईंटों को और अन्य सामान को अपने-अपने गंतव्य तक पहुंचाते थे। उनका कहना है कि इसी समुदाय के पूर्वज पुराने जमाने में ओल्ड सिल्क रूट से जानवरों की पीठ पर सामान दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में पहुंचाया करते थे। बाद में इसी जाति के लोग अलग-अलग राज्य और देश में फैल गए। भारत में इस जाति के लोग उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा और कुछ नेपाल के हिस्से में ही बस गए।
इसी तरह बिहार में चांय जाति का भी जातिगत जनगणना में उल्लेख हुआ है। दिल्ली विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के प्रवक्ता सुशील कुमार कहते हैं, मांझी, केवट और नदियों में अपने जीवन को तलाशने वाली सैकड़ों साल पुरानी इस जाति की संख्या भी एक लाख के करीब है। लेकिन इसकी अलग-अलग राज्यों में कहीं पर इनकी जनसंख्या ज्यादा तो कहीं कम है। डॉ. सुशील कहते हैं कि बिहार के जिस हिस्से में इस जाति का जिक्र हुआ है, वह आज से नहीं बल्कि सैकड़ों साल से दक्षिण एशिया की नदियों के किनारे रहने वाला एक समुदाय था। शोध बताते हैं कि सैकड़ों साल पहले तक मल्लाह, केवट और नदियों पर आधारित अपने जीवन को व्यतीत करने वाली इस जाति के लोग खेती-किसानी से न सिर्फ दूर रहते थे, बल्कि अपने परिवार का जीवनयापन नदियों और पानी के तमाम अन्य स्रोतों से करते थे।
इसी तरह बिहार में 209 जातियों की जनगणना में सबसे कम संख्या वाली जदुपतिया जाति भी है। समूचे बिहार में इस जाति के महज 93 लोग ही रहते हैं। मूलतः जानवर चराने वाली चरवाहों की यह जाति हरे-भरे घास के मैदाने वाले राज्यों में ज्यादा पाई जाती रही। पिछड़ी जातियों में शुमार की जाने वाली जदुपतिया को अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग जातियों का दर्जा मिला है। इसी तरह बिहार में लोहे पर काम करके अपने जीवन को आगे बढ़ाने वाली असुर जाति की भी जनगणना में संख्या पता चली है। आंकड़ों के मुताबिक तकरीबन 7000 की संख्या वाली इस जाति में तीन अन्य जातियां भी जुड़ी होती हैं। जिनमें बीरअसुर, बिरजिया और अगरिया शामिल हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर सुशील कुमार कहते हैं कि इस जाति का अस्तित्व अलग-अलग दौर में सैकडों साल पुराना है। क्योंकि पुराने दौर में इस जाति के लोग न सिर्फ जंगलों में रहते थे, बल्कि लोहे को गला कर और लोहे के उपकरणों से अपने जीवन को आगे बढ़ाते थे।
बिहार में जाति जनगणना के आंकड़ों के साथ कई ऐसी जातियों के नाम का भी जिक्र हुआ है, जो शायद इससे पहले देश के अलग-अलग हिस्से में रहने वालों ने नाम तक न सुना हो। इसमें लकड़ी का काम करने वाले बढ़ई समुदाय के एक जाति ‘सूत्रधार’ का भी जिक्र किया गया है। समूचे बिहार में सूत्रधार की जनसंख्या 499 ही है। इसी तरह लोहे का काम करने वाले बिरजिया समुदाय की भी संख्या 169 ही है। बिहार में ‘हो’ समुदाय से 143 लोग ताल्लुक रखते हैं। जबकि कागजी समुदाय के महज दो हजार लोग ही हैं। ऐसे ही कई अनोखी जातियों का जिक्र जातिगत जनगणना की सूची में सामने आया है। समाजशास्त्री धीरेंद्र गजानन कहते हैं कि जिन जातियों का जिक्र बिहार की जातीय जनगणना में आया है, उनमें से बहुत सी ऐसी जातियां हैं, जिनका नाम देश तो दूर बिहार के ही बहुत से लोगों ने नहीं सुना होगा। जिसमें बिरहोर, विमियां, परथा, पहिरा और चिकबराक जैसी कई जातियां शामिल हैं।