शर्मनाक:जन्मजात बीमारियों से ग्रस्त बच्चों को मरने के लिए फेंक जाते हैं लोग, हर महीने बढ़ रही ये कुरीति – People Are Throwing Their Children Born With Disease. See A Report.

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People are throwing their children born with disease. see a report.

जन्मजात बीमारियों से ग्रस्त बच्चों को मरने के लिए फेंक जाते हैं लोग
– फोटो : अमर उजाला

विस्तार


और नित्या जब पैदा हुईं तो उनके सिर बड़े थे। इसके पीछे वजह थी एक बीमारी जिसे हाइड्रोसिफैलस कहते हैं। आद्या और नित्या की यही एक समानता नहीं है। दोनों के अपनों ने उन्हें मरने के लिए फेंक दिया, जबकि इस बीमारी का इलाज हो सकता है। कानपुर की बाल कल्याण समिति ने सालभर पहले इनको लखनऊ भेजा, आज दोनों पहले से बेहतर हैं। आद्या या नित्या जैसे ही चार-पांच बच्चे हर महीने राजकीय बालगृह आते हैं, जिनका इलाज कराने के बजाय मरने के लिए उनके अपने ही झाड़ियों या सड़क पर छोड़ गए।

राजकीय बालगृह में आने वाले निराश्रित बच्चों का औसत चार से पांच है। इनमें एक से दो बच्चे जन्मजात बीमारियों से ग्रसित होते हैं। यहां अभी ऐसे 55 शिशु हैं। कोई एक साल का तो कोई तीन साल का। इनमें हाइड्रोसिफैलस, हृदय रोग, थैलेसीमिया, अंगों के विकसित नहीं होने और कमजोर दृष्टि दोष जैसी बीमारियों से ग्रसित बच्चों की संख्या 10 है। ये सभी एक साल तक की उम्र के हैं। इन सभी का इलाज एसजीपीजीआई या केजीएमयू में चल रहा है।

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दृष्टि सामाजिक संस्थान में भी ऐसे ही हालात

जानकीपुरम स्थित दृष्टि सामाजिक संस्थान के अध्यक्ष के मुताबिक इस वित्तीय वर्ष में अब तक 20 बच्चे उनके यहां पहुंचे हैं। वह कहते हैं, जनवरी से सितंबर तक कम से कम हर माह जन्मजात बीमारियों से ग्रसित एक बच्चा जरूर आया। इन्हें जब लाया गया था तब कोई नवजात था, तो कोई तीन साल का। संस्थान में 250 से अधिक बच्चे व किशोर और किशोरियां हैं, जो किसी न किसी जन्मजात बीमारी से ग्रसित हैं। इनमें हाइड्रोसिफैलस या माइक्रो सिफैलस यानी छोटे सिर की बीमारी व सेरिब्रल पाल्सी से पीड़ित बच्चों के साथ ही विशेष बच्चे भी शामिल हैं।

परवरिश करें, सरकार मदद देती है

बाल अधिकार कार्यकर्ता डॉ. संगीता शर्मा बताती हैं कि एक बात तो साफ है कि गंभीर बीमारियों से पीड़ित बच्चों को फेंके जाने के पीछे वजह सिर्फ उनसे पीछा छुड़ाना होता है। सरकार इलाज में मदद करती है। ऐसे में अभिभावकों को परवरिश व इलाज का खर्च उठाने से डरना नहीं चाहिए। डीपीओ विकास सिंह भी यही बात कहते हैं। वह बताते हैं, अगर अभिभावक परवरिश नहीं कर सकते, तो उन्हें फेंके नहीं, किसी संस्था या बालगृह को सौंप दें। संस्था और बालगृह में पहचान भी गोपनीय रखी जाती है। प्रदेश सरकार इलाज का पूरा खर्च उठाती है। इस साल ही ऐसे बच्चों के इलाज पर 8-10 लाख रुपये खर्च किए जा चुके हैं।

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